Friday 4 November 2016

आर्थर लेफर ने 1974 में पाया कि यदि सरकार एक इष्टतम दर पर कर एकत्र करती है तो यह कर संग्रह को बढ़ा सकता है। तो यदि कर  की दर 0 प्रतिशत है तो कोई संग्रहण नहीं होगा व यदि कर  की दर 100 प्रतिशत है तो लोग कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं होंगे। तो दोनों का संतुलन ऐसे ढ़ंग से बनाए रखना होगा कि व्यवसायों व निवेशकों के पास पुनः निवेश करने के लिए व अधिक अर्जित करने के लिए पैसे बचें हों।

भारत ने इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान 90 प्रतिशत से अधिक जितना उच्च कराधान देखा है जिसके बाद 1991 के सुधार एक अधिक कर अनुकूल वातावरण की तरफ ले गए। हालांकि भारत के एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते उसे वोट प्राप्त करना है।

यहां भारत की जीडीपी की तुलना हमारे आकार के अन्य देशों के साथ है। यदि आप प्रति व्यक्ति आय की तुलना में न्यूनतम कर स्लैब का अनुपात देखें तो हम महसूस करेंगे कि हमारे पास प्रति व्यक्ति आय से दुगना कमाने वालों के लिए सबसे उदार संरचनाओं में से एक है।


यदि आप बारीकी से अध्ययन करेंगे तो आप देखेंगे कि चीन के पास लड़ने के लिए कोई चुनाव नहीं है- इसलिये वे उनके प्रति व्यक्ति आय के 3.22 प्रतिशत जितना कमाने वालों से भी 3 प्रतिशत कर लागू करते हैं। इंडोनेशिया जैसा राष्ट्र जिसके पास भारत की प्रति व्यक्ति आय से दुगनी है उसकी कर दर कम हैं। यहां तक कि उसका अगला कर स्लैब 5 प्रतिशत है।

इसका अर्थ है कि अन्य सभी अधिक जनसंख्या वाले देश अधिक लोगों पर कम कर लागू करके कर आधार बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। तो उनकी प्रति व्यक्ति आय की तुलना में उनके कर स्लैब कम अंकों पर शुरू हो रहे हैं।

भारत को ऐसे उदाहरणों से सीखना चाहिये व 1,00,000 रूपये से 2,50,000 तक आय - जिसपर वर्तमान में 0 प्रतिशत कर लागू होता है, उनपर 1 प्रतिशत कर लागू करना चाहिये। इससे कर आधार बढ़ेगा व कोर्पोरेट स्तर पर भी अनुपालन में सुधार होगा। कहने की आवश्यकता नहीं है कि काली अर्थव्यवस्था कम होगी व उनके आय के प्रमाण के आधार पर लोगों को आसान ऋण भी मिल जाएगा।

भारत की अर्थव्यवस्था पर कर सुधारों का प्रभाव

कर सुधार आमतौर पर सरकार के वित्त पोषण के साथ जुड़े होते हैं। राजनीति में रूचि रखने वाले लोग कर सुधार को वोट बैंक के साथ जोड़ेंगे व आगामी चुनावों में सुधारों को बारीकी से देखेंगे। कर सुधारों को कभी कभी कर स्तर में संशोधन व कर दरों का सरलीकरण समझ लिया जाता है। हालांकि ये कर सुधार नहीं हैं। कर सुधार सरकार द्वारा कराधान के अभिनव तरीकें हैं जिसमें देश की समग्र अर्थव्यवस्था का विकास होता है और इस तरह अनुपालन की लागत कम हो जाने पर भी वह अधिक कर राजस्व प्राप्त करती है।

आज़ादी के 69 वर्षों में एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था ने सामाजिक आर्थिक परिदृश्य में कई बदलाव देखे हैं।

औपनिवेशिक शासन के बाद के दशकों के दौरान, भारत की अर्थव्यवस्था, प्रति व्यक्ति आय के संबंध में, मात्र 500 रूपये से 6200 तक विस्तरित हुई है देश के विदेशी मुद्र भंडार ने 365 अरब को पार कर लिया है, जिससे बाहरी झटकों से लड़ने के लिए अर्थव्यवस्था को शक्ति मिली है।


भले ही देश ने सडकों बंदरगाहों का निर्माण कर खद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के द्वारा अर्थव्यवस्था को उच्च विकास पथ पर ले जाने के लिए बुनियादी ढांचे को बिछाने में प्रगति की हो, एक तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या और बुनियादी सुविधाओं का संकट कई क्षेत्रों में और अधिक काम करने की मांग करता है।

तो यदि आप ध्यान देंगे कि 1991 में मनमोहन सिंह द्वारा शुरू किए गए कर सुधारों के बाद हम 1500 रूपये प्रति व्यक्ति आय की 170 वर्ष की बाधा को महज 25 वर्षों में लगभग 7 गुना कर पाए।

कई लोगों का मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था में सुधार स्वतंत्रता की वजह से हुआ है। हालांकि स्वतंत्रता के बाद सभी अर्थव्यवस्थाएं इतनी अधिक सफल नहीं हुई हैं। अफ्रीका में जिन देशों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई उन्होंने यूरोपवासियों के जाने के दशकों बाद तक जीडीपी में गिरावट देखी है। यह इस तथ्य के कारण अधिक था कि विदेशी शासनों ने गुलाम देशों के बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए ना के बराबर काम किया था और इसलिए वे विकसित नहीं हो पाए। दूसरी तरफ भारत की एक स्थिर अर्थव्यवस्था थी उसने पिछले 3 दशकों में अर्थव्यवस्था के लगभग सभी पहलुओं में अभूतपूर्व वृद्धि देखी है।

कर सुधार आमतौर पर व्यापार की कठिनाइयों को कम करने के लिये किए जाते हैं। इस तरह अधिक व्यापारिक उद्यमों का गठन होता है व अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिए साझेदार फर्मों पर दोहरे कराधान को समाप्त करना। इसने कई सारे लघु उद्यमों को पनपने में सक्षम किया व लोगों ने इमानदारी से आय की रिपोर्ट करना शुरू कर दिया।

पूर्व में साझेदार फर्मों पर दोहरे कराधान के कारण कर की चोरी बहुत अधिक होती थी व लोग साझेदारी में प्रवेश करने से बचने थे जिससे अर्थव्यवस्था पर चोट पहुंचती थी। हमने स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए बहुत संघर्ष किया- मुझे लगता है कि यदि हम भारत को एक धनी देश बनाना चाहते हैं तो अधिक से अधिक कर सुधार प्राप्त करने के लिए हमें और अधिक संघर्ष करना चाहिये। 

क्या नकद की अनुपस्थिति अपराध को कम करती है?

बैंक डकैती, जुआ, तस्करी, भ्रष्टाचार, वेश्यावृत्ति, नशीले पदार्थों की बिक्री, नकली मुद्रा और कर चोरी में क्या समानता है? ये सभी नकदी पर निर्भर हैं। ये वे अपराध हैं जो अर्थव्यवस्था में नकद की उपस्थिति पर अत्यधिक निर्भर हैं। तो इस समस्या के दो पहलू हैं। पहला यह कि ऐसे सौदों में बहुत सारी नकदी होती है व नकद एक विशेष मूल्यवर्ग का होना चाहिये।

हाल ही में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू ने कहा कि अर्थव्यवस्था में काले धन को कम करने के लिए 1000 रूपये व 500 रूपये के नोटों को समाप्त कर दिया जाना चाहिये और करोड़ों रूपये की राशि का 100 रूपये के नोट में होना असुविधाजनक हो जाएगा। एक व्यक्ति जो 5 लाख रूपयों से भरा हुआ भारी बैग लेकर सरकारी अफसर से मिलने जा रहा है, उसपर सीसीटीवी में भी नज़र पड़ सकती है क्योंकि वैसा ही व्यक्ति अफसर के कैबिन से हल्का बैग लेकर बाहर निकलता हुआ दिखेगा। यह छोटे भ्रष्टाचार के संबंध में एक अच्छा विचार है- बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार फिर भी होंगे ही क्योंकि अपतटीय बैंक खाते जारी रहेंगे। हालांकि यदि हम अपराध को कम करना चाहते हैं तो हमें नकद लेनदेन पर अपनी निर्भरता को कम करना होगा। छोटी डकैतियां व अवैध कारोबार नकदी पर अत्यधिक निर्भर करती है। कल्पना कीजिए कि एक व्यक्ति ड्रग्स खरीदने के लिए एक बड़ा बैग ले जा रहा है। उसपर नज़र ना पड़ना असंभव है।

तो मुद्राचलन में नोटों के मूल्यवर्ग को कम करने के अलावा इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन का प्रचार करने की आवश्यकता है। यहीं पर जन धन योजना उपयोगी सिद्ध होगी। चूंकी भारत की अधिकांश जनसंख्या को बैंक अकाउंट की पहुंच प्राप्त होगी, बैंक लेनदेन करना अब सरल होगा। तो सरकार एक नीयम बना सकती है कि यदि आपको न्यूनतम वेतन से अधिक किसी भी वेतन के लिए आयकर में कटौती चाहिये-उसका भुगतान बैंक अकाउंट द्वारा किया जाना होगा।

क्रेडिट कार्ड व डेबिट कार्ड के उपयोग का प्रचार किया जाना चाहिये। प्रत्येक लेनदेन की कीमत 2.5 प्रतिशत जितनी उच्च है और उसे किसी भी तरह से नीचे लाया जाना चाहिये। क्रेडिट कार्ड/ डेबिट कार्ड इन दिनों चिप, ओटीपी व एसएमएस अधिसूचना जैसी सुविधाओं के साथ बहुत सुरक्षित है।

यूपीआई की शुरूआत-अगस्त 2016 में रिज़र्व बैंक द्वारा एकीकृत भुगतान इंटरफेस ने कई सारी संभावनाओं को खोल दिया है। मान लीजिए कि आप खरीदारी करने बाहर गए हैं- आपको नकद या कार्ड या चैक बुक की आवश्यकता नहीं है। आप एक टीवी खरीदने का निर्णय लेते हैं- आपके पास आपका मोबाइल फोन व आपका पासवर्ड है। आपको प्राप्तकर्ता की यूपीआई आईडी दर्ज करनी है जिन्हें आपको पैसों का भुगतान करना है व तुरंत पैसे स्थानांतरित कर दीजिए।

15 बैंक अपने एंड्रॉयड एैप्स को यूपीआई के साथ जोड़ चुके हैं। आप यूपीआई के द्वारा पैसे भेज व प्राप्त कर सकते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि आप कुछ ही क्षणों के भीतर अंतर बैंक लेनदेन कर सकते हैं। लेनदेन का कोई शुल्क नहीं है व याद रखने के लिए कोई अतिरिक्त पासवर्ड भी नहीं है- फिर भी यह पूर्णतः सुरक्षित है। यहां तक कि तीन स्तरीय सुरक्षा है - मान लीजिये कि आपके माबाईल फोन में फिंगर प्रिंट सुरक्षा है, फिर आपके एैप में 4 अंकों का पिन होगा व अंत में यूपीआई के लिए आपको आपके डेबिट कार्ड के पीछे लिखा हुआ नंबर लिखने की आवश्यकता होगी। तो ज्ञान के बगैर पैसे चुराना असंभव है।

यह जो बैंकिंग मार्ग बनाता है उसके कारण-अवैध लेनेदेन में इलेक्ट्रानिक धन का बहुत कम प्रयोग किया जाता है। सरकार को ऐसे लेनदेन का प्रचार स्वीडन की तरह करना चाहिये। उस देश ने ऐसे ही ‘‘स्वीश” नाम का मोबाइल आधारित भुगतान शुरू किया है व नकद पर उसकी निर्भरता को कम किया है।


आज़ादी के 69 वर्षों में एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था ने सामाजिक आर्थिक परिदृश्य में कई बदलाव देखे हैं।

औपनिवेशिक शासन के बाद के दशकों के दौरान, भारत की अर्थव्यवस्था, प्रति व्यक्ति आय के संबंध में, मात्र 500 रूपये से 6200 तक विस्तरित हुई है देश के विदेशी मुद्र भंडार ने 365 अरब को पार कर लिया है, जिससे बाहरी झटकों से लड़ने के लिए अर्थव्यवस्था को शक्ति मिली है।



भले ही देश ने सडकों बंदरगाहों का निर्माण कर खद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के द्वारा अर्थव्यवस्था को उच्च विकास पथ पर ले जाने के लिए बुनियादी ढांचे को बिछाने में प्रगति की हो, एक तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या और बुनियादी सुविधाओं का संकट कई क्षेत्रों में और अधिक काम करने की मांग करता है।

यहां आज़ादी से लेकर अब तक देश की अर्थव्यवस्था के प्रमुख वृहद संकेतकों का एक दृश्य हैः

जीडीपी
7$ की दर से बढ़ती हुई भारत की जीडीपी, वर्तमान में सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। हाल ही में सुधारों की वजह से विकास हुआ है हालांकि स्वतंत्रता के बाद अर्थव्यवस्था को विकसित करने के बीज बोए गए थे।



जीडीपी के प्रतिशत के रूप में सकल घरेलू बचत

भारतीयों की सकल घरेलू बचत, जीडीपी के एक प्रतिशत के रूप में, वित्तीय वर्ष 2008 में जीडीपी के 36.8 प्रतिशत को छूने के लिए कई दशकों से बढ़ी है, परंतु उसके बाद यह अनुपात तेज़ी से गिरा है वित्त वर्ष 2013 में 30 प्रतिशत तक गिरावट आई है, इसने निर्माताओं के लिए चिंता पैदा की है।


विदेशी मुद्रा भंडार

देश का विदेशी मुद्रा भंडार स्वतंत्रता के समय से मात्र 2 बिलियन डालर से 365 बिलियन डॉलर तक बढ़ा है। मज़बूत विदेशी मुद्रा भंडार ने अर्थव्यवस्था को बाहरी झटके झेलने के लिए और अधिक ताकत दे दी है। जनवरी 1991 में, भारत को अंर्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष के लिए 67 टन सोना गिरवी रखना पड़ा था जब देश का विदेशी मुद्रा भंडार 1.2 बिलीयन मात्र तक गिर गया था, जो केवल तीन सप्ताहों के अनिवार्य आयातों को वित्तपोषित करने के लिए पर्याप्त था।












हालांकि स्वतंत्रता के बाद सभी अर्थव्यवस्थाएं इतनी अधिक सफल नहीं हुई हैं। अफ्रीका में जिन देशों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई उन्होंने यूरोपवासियों के जाने के दशकों बाद तक जीडीपी में गिरावट देखी है। यह इस तथ्य के कारण अधिक था कि विदेशी शासनों ने गुलाम देशों के बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए ना के बराबर काम किया था और इसलिए वे विकसित नहीं हो पाए। दूसरी तरफ भारत की एक स्थिर अर्थव्यवस्था थी उसने पिछले 3 दशकों में अर्थव्यवस्था के लगभग सभी पहलुओं में अभूतपूर्व वृद्धि देखी है।